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ज़ख्म

मुहब्बत में ग़ुलाबों की, ज़ख्म काँटों से खाए हैं।

जहाँ तुमसे मिले थे हम, वो बस्ती छोड़ आए हैं।।

 

जो सच्चे रिश्ते होते हैं, हर क़दम साथ चलते हैं।

बड़ी बातें नहीं करते, जो कहते हैं वो करते हैं।

वो हर रिश्ते जो झूँठे थे, जो अक्सर साथ दिखते थे।

हक़ीकत ये समझते ही, वो रिश्ते तोड़ आए हैं।।

 

मेरे शब्दों को बस कविता समझकर भूल मत जाना।

हक़ीकत है, ये सच है, ये नहीं है झूँठा अफ़साना।

सफ़र में ज़िन्दगी के वक़्त के संग चलना पड़ता है।

कहीं पीछे न रह जाएँ, इसलिये दौड़ आए हैं।।

 

ये बाजार-ए-जहाँ है, इसमें हर इक चीज़ बिकती है।

सभी शक्लें हैं व्यापारी, भले इंसाँ वो दिखती है।

नफा-नुकसान इंसानों के जज़्बातों पे भारी है।

मुहब्बत सब घटा करके, तिज़ारत जोड़ लाए हैं।।

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(शिवकेश द्विवेदी)

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