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अन्याय

अन्याय
इस लिए नही हैं कि
वह बहुत शक्तिशाली है
और उसका पलड़ा भारी है
वह हर जगह छाया है
उसने अपना घर बसाया है

अन्याय इसलिए है
क्यों कि
हम अपनी आवाज़ उठा नही पाते
अपनी बात पहुंचा नही पाते
उसकी नीव हिला नही पाते

आँखे मूंदे रहते हैं
समाज को
बांटे रहते हैं
कभी जाति के नाम पर
कभी धर्म के नाम पर
कभी सम्बन्धों की सार्थकता के नाम पर
कभी व्यहार्यता के नाम पर

और अन्याय बढ़ता जाता है
सूरज को निगलता जाता है
अपने को फैलाते हुए
न्याय को हटाते हुए

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