अब तक सुलग रहा है उठ रहा है धुंआ धुंआ सा
इक रिश्ता जलते जलते रह गया है जरा जरा सा
कुछ बीज मुहब्बत के सींचे थे घर के आंगन
बिन खाद पानी पौधा दिखता है मरा मरा सा
मुद्दत हुई है इश्क की मैयत ही निकल गई है
दिखता है अब तलक ये दिल यूँ ही भरा भरा सा
रिश्तों की फटी है चादर तुरपाई कर रहा था
सुई चुभी जो उंगली रह गया मै डरा डरा सा
वसीयत में मिली शराफत हर शख्स को शहर में
हर बंदा फिर भी क्यूँ है यही पे लुटा लुटा सा
सुबह निकले थे जरुरतों के संग धुप सर पडी़ थी
शाम लौटा तो हाथ खाली औ खुद थका थका सा
बस राख ही बचा है कुछ बाकी तो निशां नहीं है
बस्ती थी कल यहां पर लगता है सुना सुना सा