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“अमावस का अंधेरा”

मन खिन्न है मेरा
तेरी बेवफाई से
रो रहा है अम्बर भी
धरती की जुदाई से
बेबस हैं पत्ते सूखकर
मिल गये धरती में टूटकर
ग्लानि में मर रहा है
विरह का दुःख तो
वृक्ष भी सह रहा है
तप रहा है सूरज भी देखो
आसमां की बेरुखी पर
चाँद को सिर पे चढा़कर
चाँदनी में नित नहाकर
अम्बर और सुंदर लग रहा है
प्रज्ञा शुक्ला’ स्तब्ध है
होंठों पर ठहरे लफ्ज हैं
प्रिय मिलन की बेला में
अमावस का अंधेरा* घिर रहा है..

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