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अ–परिभाषित सच !

॥ बेटी के लिए एक कविता ॥ 
“अ—परिभाषित सच !”
डरते—सहमते—सकुचाते
मायके से ससुराल तक की
अबाध—अनिवार्य यात्रा करते हुए
मैंने; गांठ बांधी पल्लू से
साथ में; ढेरों आशंकाएं ………….
कई; सीख—सलाइयतें ……………
 
हिचकियों के बीच; हिचकोले लेता
मेरा अबोध मन—-आँसूओं से भीगा
अपरिचित दायरों में कसमसाता रहा
“ कोई अपना तलाशता रहा “
‘अपने—पराए की भेद—रेखा में’
बिंधा—बिंधा छटपटाता रहा .
 
बिदाई की बैचेनी से बचकर
गृह—प्रवेश की बेला में
‘नमी की नदी’ से उबरकर
‘उमंग के आकाश’ में
पुरवाई—सी आ बसी : मैं .
 
“ ओ; माँ !”………..’मम्मी जी’ हो गईं
“ अरे; पापा !”……….साकार हुए ‘पिताजी’
और; अनचीन्हा पति, “अजी ! ऐ; जी !! ओ; जी” !!!
 
‘पीछे छोड़े’ घर की ‘अपार वेदना’
‘आगे’ जुड़ रहे घर की ‘असीम उत्कंठा’
इन दोनों के मध्य—–प्रतिबध्द
किसी सेतु—बंध सी स्तब्ध
काँपती—डोलती—थरथराती
मैं !
नितांत अकेली—अजनबी—अनिर्दिष्ट
 
कभी साड़ी की सलवटें संवारती
कभी पल्लू को करीने से सहेजती
क़दम—दर—क़दम नाप कर रखती
हर भंगिमा—हर निगाह परखती
और; अपने—आप को तौलती
सारा दिन; जाने क्या—क्या सोचती
रात—भर सपनों में शूल रोपती .
 
काश ! कि; किसी ने समझाया होता
माँ की आशंकाएं, ‘मोह का चरम’ थीं
‘मम्मीजी’ भी, “माँ सी ही“ नरम थीं
एक ही दहलीज़ में, ‘अधिकार’ और ‘कर्तव्य’ की
दो धाराएँ; समानान्तर—सदिष्ट बहने लगीं
‘नमी और नियति’ की कथाएँ कहने लगीं .
 
नारी : नदी की तरह; ‘नियामक’ होती है !
मायके के ‘सरोवर’ से; उन्मुक्त झरने सी निकलती है
ससुराल की दहलीज़ तक आते—आते
सम्बन्धों के समतल मैदान में
‘मंथर मगर; निश्चित गति से’
किनारों की परिधि से सामंजस्य रखते हुए
अनुभव के महासागर में विलय—पूर्व
कर्तव्य—पथ की अनगिन विरल धाराओं में
स्व——विकेंद्रीकृत हो कर
सबकी ‘प्यास’ बुझाती ………………….
सबको ‘आप्यायित’ करती …………….
अंतत:; अपनी ‘समग्र मिठास’ लेकर
‘जीवन—सागर’ के बाहुपाश में तिरोहित हो जाती है .
 
देखिए; न !
आखिरकार; भटक ही गई : मैं !
अल्हड्पन से अनुभव की महायात्रा के मध्य
ऐसे ही कई पहलू बदले : मैंने !!
‘पहाड़ों’ को तोड़ा —– ‘चट्टानों’ को मरोड़ा
‘वनों’ को ‘संश्लेषित’ किया —- ‘खेतों’ को ‘सींचा’
“ बहुत कुछ संचित किया —— जाने कितना ऊलींचा ”
फ़िर भी; कभी खाली नहीं रही
अनुत्तरित रही —– सवाली नहीं रही .
 
शनै: शनै: जाना मैंने !
परिवेश की पदचाप को पहचाना मैंने !!
समय और सफ़र, स्वयं के ‘विस्तार’ के सापेक्ष हैं
सम्बन्धों की गरिमा ही सच है, ‘अनुभव और रफ़्तार’ निरपेक्ष हैं .
 
माँ का मन — मन की ममता और ममता की महत्ता
‘पहली संभावित किलकारी’ के साथ ही, सराबोर कर गई : मुझे
स्वयं को ‘हार कर’, सबको ‘जीत’ लिया : मैंने
आशंकाओं और दुरभिसंधियों से परे
प्रेमजनित विश्वास से, जीना सीख लिया : मैंने .
 
आज !
मेरे चेहरे पर
अपनी सफ़ल शौर्य—गाथा की कान्ति है !!
मेरे दोनों किनारे ढहे नहीं, सम्हाले हुए हैं : मुझे
मेरे जीवन में संतोष है —– मन में शांति है .
 
पता है, मुझे !
‘चंद आधुनिक’ कहेंगे; जुरूर
सिर चढ़कर बोलेगा, उनका सुरूर
कि; मैंने, अपने आप को ‘मारकर’ —- ‘जीवन’ पाया है !
या; कि, खुद को ‘हार कर’ —– ‘सारा कुछ’ निभाया है !!
सोचने दीजिये !
…………… ये; उनकी, अपनी भ्रांति है ……………..
क्योंकि; नारी का जीवन, ‘अनशन’ नहीं —- ‘समग्र क्रांति’ है .
 
अब; आप ही कहिए, जरा !
सफ़ल जीवन की परिभाषा, और कैसे तय होती है; भला ?
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