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” इक जिद्द अधूरी रह गयी “

थे क़रीब इक दूजे के ….

लेकिन फिर भी दरम्यां हमारे , दुरी रह गयी ….

इबादत करते हुए , इक भी दर ना छोड़ा ख़ुदा का …

फिर भी कोई मज़बूरी रह गयी..

कह देते थे , महफ़िल – ए – यारों में ….

” वो हैं मेरी ” …

 

.

बस यही इक जिद्द अधूरी रह गयी …..

 

पंकजोम ” प्रेम “

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