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इक बार मेरी सिसकती कलम

इक बार मेरी सिसकती कलम ने कोरे कागज़ पर लकीरें खीच दी
मैं सारी उम्र उसे जीवन रेखा ही समझता रह गया

इक बार मेरा हाथ उन लकीरों में पड़ गया
लगा सारी हाथ की रेखाएं हाथों से कागज़ पर गिर गयी है

इक बार इन लकीरों पर गलती से मेरा पाँव पड़ गया
एहसास किसी मुल्क को बाटती सरहद सा हुआ

इक बार मैंने उस कलम को फिर से हँसते हुए देखा
इक कोने पे बैठी लकीरें अब सिसकियाँ भर रही थी

राजेश ‘अरमान’१२/०५/२००५

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