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इतना अच्छा नहीं हुँ, जितना कि दुनिया कहती है ।

गज़ल ।।

इतना अच्छा नहीं हुँ, जितना कि दुनिया कहती है ।
मैं कैसा हुँ, ये सिर्फ मैं जानता हूँ ।।1।।

खूद के सवालों के कठघड़े में, मैं हरवक्त खड़ा रहता हूँ ।
दूसरों के नजरों में जो अच्छा बनूँ तो क्या ।
अपनी नजरों में गिरा रहता हूँ ।।2।।

लाख दुनिया करनामे दिखाये तो क्या ।
इस भौतिक जग में बेच आत्मा को ।
वही शख्स हूँ मै, जो कभी भूल नहीं पाता ।
क्षणिक आनंद को, मैं वही गलत विचारों का मारा, हरि का खिलौना हूँ ।।3।।

हरि ने तो भेजा है, देकर निर्मल काया ।
पर इस बंदे ने लगाया चुनरी में दाग है ।।4।।

बन्दे के इस करतूत से ईश्वर नाराज है ।
लेकिन ईश्वर समदर्शी है, पर न्याय के संग है ।।5।।

मैं क्या करूँ, ये समझ नहीं पाता हूँ ।
झूठी नगरी, क्षणिक देहिक आनंद में खोया रहता है ।।6।।

सदा ही धिक्कारती है जो आत्मा,
तो मैं खूद को आकाश से ऊपर से भी ऊपर से गिरा समझता हूँ ।।7।।
इतना अच्छा नहीं हूँ, जितना कि दुनिया कहती है ।।
कवि विकास कुमार

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