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इश्क़ का विषपान

जब से इश्क़ का विषपान किया

मैं पूर्ण खुद को पाती हूँ

कितना भी कड़वा हो ये विष इसे पी कर

मैं श्री शंकर सी मलंग रहना चाहती हूँ

मैं बस तेरा ध्यान लगाए हुए

सिर्फ तेरी धुन में रहती हूँ

तू मुझ में बसा कस्तूरी की तरह

फिर भी तुझको ढूँढा करती हूँ

तू यहीं कही है मेरा पास

ऐसे जाने कितनी मृग तृष्णा पार करती हूँ

जब से इश्क़ का विषपान किया

मैं पूर्ण खुद को पाती हूँ

ये सुलग़ता इश्क़ जब से तन पर लगाया है

कोई और श्रिंगार तुम बिन न मन को भाया है

इसकी भस्म को तन पर रमा के

तेरी खुशबू सी महक जाती हूँ

अब किसी और इत्र का क्या साथ करूँ

जब सिर्फ तेरी तिशनगी में खुद को डूबा पाती हूँ

जब से इश्क़ का विषपान किया

मैं पूर्ण खुद को पाती हूँ

मुझे न चिंता तुम्हे भुलाने की

न किसी व्यसन की लत लगाने की

तेरा इश्क़ ही काफी है

अब इस पर कोई और नशा चढ़ता नहीं

अब रोज़ इसका दो कश लगाती हूँ

और तुम्हारी यादों से खुद को खींच

ज़िन्दगी की और बढ़ती जाती हूँ

जब से इश्क़ का विषपान किया

मैं पूर्ण खुद को पाती हूँ

इश्क़ न आसान था उनके लिए

जिनकी भक्ति हम करते हैं

राधा-कृष्ण को ही देख लो

जिनकी उपासना सब करते हैं

दोनों अलग हो के भी साथ हैं

युगों युगांतर के लिए

सीता माँ की विरह वेदना

श्री राम को भी तो सताती होगी

जब “सती” हो गई माँ सती अग्नि में

तो श्री शिव को भी पीड़ा हुई होगी

जब ईश्वर ही न बच सके

विधि के विधान से

तो हमारी क्या हस्ती है

यहीं सोच मैं मंद मंद मुस्काती हूँ

जब से इश्क़ का विषपान किया

मैं पूर्ण खुद को पाती हूँ

कितना भी कड़वा हो ये विष इसे पी कर

मैं श्री शंकर सी मलंग रहना चाहती हूँ

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