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एक ग़ज़ल


एक ग़ज़ल  जो मेरे बेहद अज़ीज़ दोस्त को समर्पित है ….
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तुम्हारे चाहने वाले को क्यों आहें मयस्सर हैं ?
नमी आँखों में लब पर हिज्र की बातें मयस्सर हैं..!!
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कोई प्यासा तेरे नज़दीक जाये भी तो क्यों जाये;
उसे जब रेत जैसी गर्म बरसातें मयस्सर हैं..!!
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मेरे ख़ाबों की ताबीरें तेरे पहलू में हैं सोई;
मुझे इक तू नहीं तेरी हंसीं यादें मयस्सर हैं..!!
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अँधेरों ने मुझे खामोश रहने का हुनर बख़्शा;
उजाले को अभी भी शोर की बातें मयस्सर हैं..!!
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बहुत नाज़ों से पाला हसरतों के जिन परिंदों को;
उन्हीं की ख़वाहिशों को क़त्ल की रातें मयस्सर हैं..!!
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वो जिसने हर घड़ी अपनी मेरे ही नाम लिख दी थी;
मुझे साये से उनके कुछ मुलाक़ातें मयस्सर हैं..!!
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अर्चना पाठक “अर्चिता”
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