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एक नहीं सी जान पर क्यों पहरे हजार रखते हैं

एक नहीं सी जान पर क्यों पहरे हजार रखते हैं,

पिंजरे में क्यों हम उसका सारा सामन रखते हैं,

छिपाकर क्यों घूमते हैं चेहरे पर चेहरे लगाये,

क्यों आईने सी साफ नहीं हम अपनी पहचान रखते हैं,

बेटियों के दबाकर जो नाम गुमनाम रखते हैं,

घूमते हैं खुले आम पर न अपना कोई मुकाम रखते हैं,

लूट लेते हैं सहज ही सर से दुपट्टा किसी पतंग सा,

भला कैसे जान कर भी लोग कानून को अनजान रखते हैं,

झूठी है ज्ञान की बातें सारी जो सरेआम होती हैं अक्सर,

क्या सच ये नहीं के बेटियों पर हम आज भी कमान रखते हैं।।

– राही (अंजाना)

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