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और ख़्वाब कई….

किसी अनजान बीहड़ में
सुर्ख़ पत्तों से ढंका,
एक लम्बा और संकरा रास्ता….
बहुत दूर से आता हुआ
शायद अनंत से,
खैर!
पंहुचता तो होगा ही कहीं।
या फिर,
चलो देखते हैं आज
चलकर ..
पत्तों से छनती हुई धूप में
महज़ एक रास्ते भर को ही नही,
इस सूरज को भी,
जिसे प्रबुद्ध कहते हैं सभी, हमसफ़र बनाकर
बस अभी,
चलकर इस रास्ते पर…
ढूँढ लेंगे किनारा ख्वाबों का कोई
समतल सा।
जहाँ बुन सकें तेरी मेरी आँखें
और ख्वाब कई।

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