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कच्ची मिट्टी के जैसी मै धीरे धीरे धँसती हूँ

कच्ची मिट्टी के जैसी मै धीरे धीरे धँसती हूँ

मै लडकी हूँ इस आँगन की तब ही इतनी सस्ती हूँ

 

लोग लगाएगें बोली मेरी बडे सलीके  से

लोग तमाशा देखेगें कि मै कितने में बिकती हूँ

 

मेरी मर्जी का मोल नही है मेरे ख्वाब की क्या कीमत

कोई नही पूछेँगा मुझसे मै क्या हसरत रखती हूँ

 

मेरा कद बढता है तो फिर बाप के काधेँ झुकते है

मै गीली लकडी चूल्हे की धीरे धीरे जलती हूँ

 

मुझको क्या उम्मीद ‘लकी’ अब इस दुनिया मे आने की

माँ की कोख में सदियों से मै डरती डरती पलती हूँ

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