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कतरा कतरा लहूँ का

कतरा कतरा लहूँ का जिस्म में सहम गया
चलो इसी बहाने रगों में बहने का वहम गया

वो कोई हिस्सा था मेरे ही जिस्म का
जुदा हुआ वो तोड़ कोई कसम गया

मेरे मिटने की तारीख एक फ़लसफ़ा ही थी
जाने क्यों बाँट वो मेरी मौत का परचम गया

कब था इंकार मुझे मेरी तन्हाई के सौदे का
वो देख खुद मेरी तन्हाई आखिर सहम गया

वो तेरे लब्ज़ों की बाज़ीगरी न थी तो क्या थी
फिर कोई छेड़ मेरे ज़ख्मों में कोई नज़्म गया

कोई फ़रियाद क्या करें अपनी सांसों से ‘अरमान’
जब सांसें ही हो क़ातिल ,ठहरा मुझे मुजरिम गया
राजेश ‘अरमान’

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