मेरी कलम और मेरी स्याही
लिखते लिखते बोल रही
ओ सखि ! तू किन ख्वाबों को
पन्नों पर उकेरती रहती है ?
रातों को जगकर
खामोंखा जाने क्या लिखती रहती है!
मैं बोली-
ओ बावरी कलम और स्याही!
लिखती मैं दिल के जज्बातों को
तू ना समझी क्यों ना समझी
मेरे ऐसे हालातों को
बातें जो रह जाती हैं दिल में
होंठों तक ना आती हैं
मेरे दिल में पावस बनकर
दिल में ही रह जाती हैं
मैं उन बातों जज्बातों को
पन्नों पर लिख देती हूँ और
इसी बहाने से खुद को कवयित्री कह लेती हूँ…