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कविता — संदर्भ हीन

तुम !
किसी दुर्दम्य वासना में क़ैद
छटपटातीं रहीं
जल — हीन मछली सी …….

और मैं ;
तमाम वर्जनाओं में घिरा
मोम–सा पिघलता रहा
अनमना सुलगता रहा
यक़ीनन , यह समझौता था—सम्बंध नहीं
कहीं कोई प्रतिकार नहीं
तनिक भी प्रतिबंध नहीं

तब भी ———
जब ओढ़ती रहीं : तुम
उस मर्द की देह
: जिसे पति कहा गया ………..
एक अनमनी प्रक्रिया की तरह
निर्लिप्त परोपकार लिए
: वंश—परम्परा हेतु

तुम !
बनी रहीं बंजर ; अ—सिंचित जमीन सी
स्लथ ……. स्तंभित ………… स्खलित

“ वह “————–
जब भी मनोयोग से झुका तुम पर
“तुम” , ……… और ऊपर उठ गईं
: ऊपर—बहुत ऊपर…उसकी पहुँच से परे
दोनों चेतनाएं —— भटकती रहीं
भौतिक—क्रियाएँ असामान्य पूर्वाग्रह लिए
प्रतिक्रिया—विहीन हादसे सी गुजरीं

लेकिन ; कहाँ था दोषी ?
‘ वह मर्द ‘…….. जो पति था !
मगर ; पा न सका अपना स्वामित्व
अनुभवों ने तुम्हें बखूबी सिखाया
मोहजाल फैलाना

वही हुआ ——-
‘ जिस्म के जंगल ‘ का ‘ वर्जित फल ‘
खाने की लालसा , ले आई तुम्हें
अनगिनत बाहों में पिसने के लिए
मिथ्या–सुख की प्रपंची—ज्वालायें
पोर ——- पोर में समाकर
आप्यायित करती रहीं : तुम्हें

तुम !
उन्मुक्त मादा सी
यौवन—भार से इठलातीं
विचरतीं रहीं निरंकुश
अ—विश्वास की तेज़ धूप में
परछाई—सी …. बद—हवास
किसी अंत————हीन यात्रा में
संदर्भ—हीन……एकाकी…….निरर्थक
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