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कविता

धधकते लावा है मेरे सीने मे,
जिसमे सेक रही हो रोटी
कई महीने से।
क्यॉ अब तक पकी नही ,तेरी तंदुरी,
क्यॉ बाकी है अब भी ……,
हवस की चाह तक पहुचने की दुरी।
छोड यह छिछोली नही बस की तेरी।
नही हर उस नजर को अधिकार,
जिसकी आँखो में है हवस की खुमार।
जानते है गर्म होता है जब बदन……
समझ लिया करो उनको है हवस की बुखार।
नाजुक दिल मे होता है, भडकते ज्वाला लिये
वही बन जाती है एक दिन घातक
देखा जाये तो यही है जीवन का नाटक।
जिसे खेला जा रहा है,
दुनिया के रंग मंचो पर
सिर्फ जिन्दगी का मजा लेने के लिए।
जहरीले ऑसु पीने के लिए।
अधेरी राह पर चल पडे है लोग
अस्पतालो के कुड़े दानों मे मरने के लिए।
मगर ……..
तुम मुझसे यह आस न करो,
कि बचा लुगां तुम्हे,
कोशिश करू भी तो
यह न कर पाऊगां मैं
क्योकि मै तो खुद एक आग हु।
कैसे तेरी आग को बुझा पाऊगां मै।

योगेन्द्र निषाद घरघोड़ा (छ.ग.)

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