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कविता

” मन के मोती…”

पानी के बुलबुले से
माला के मोतियों से
बिखरता है टूट जाता है |
बनता है मन का मोती
बन कर के फूट जाता है ||
स्वप्नों में साथियों से
मिलना बिछड भी जाना !
समझा नही मै अब तक
जो साथ ही सोया है
ओ साथ छूट जाता है |
कुछेक क्षंण में ही मन
अंदर से टूट जाता है ||
फिर देखकर जठर भी
उलझन में है फंस जाता !
आखिर ये स्वप्न में क्यों
ये तथ्य है दिखाता !!
जो कल्पना में पाते
स्वप्नों में सच हो जाता !
पानी पे चल रहा जो
सूखे में डूब जाता !!
देखा मैं स्वप्न में कि
लहरों पर चल रहे है !
मेरे चरण रज उठ कर
नभ में बिखर रहे है !!
हूँ भागता घर लेकिन
ये पाँव फंस गये है !
ये पत्थरों के दलदल में
कैसे धँस गये है !!
अस्तित्व स्वप्न का है
अनंत मन के मोती
कभी माला टूट जाती
मोती भी बिखर जाते !
बरसात में मुरझाते
पतझड में निखर जाते !!
उपाध्याय…

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