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“कवि हूँ मैं सरयू तट का “

“कवि हूँ मैं सरयू तट का ”
कवि हूँ मैं सरयू तट का
समय चक्र के उलट पलट का
मानव मर्यादा की खातिर
सिर्फ अयोध्या खड़ी हुई
क्यों कि युगों से मेरी अयोध्या
जाने हाल हर घट पनघट का
समय चक्र के उलट पलट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
श्री विष्णु का हुआ प्रादुर्भाव
पृथु – समक्ष विष्णु ने रखा प्रस्ताव
इन्द्र को क्षमा करो महाराज
निन्यानबे यज्ञों के विध्वंसवान
क्षमा चाहते हैं देवराज |
अपराध क्षमा हो उस नटखट का
समय चक्र के उलट पलट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
निरखि नयन होत रसाल
दिव्य आनंद सोहत भाल
नारद ऋषि का करतल ताल
दमकत छवि माथे रसाल
आए द्वापर में दसरथ के लाल
और त्रेता देखा नन्द गोपाल
समय चक्र के उलट पलट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
‘मंगल ‘ ईश्वर लीला अपार
बोले राजन, करो सोच – विचार
साधु और सद्बुद्धिवान
होता मानव श्रेष्ठ -महान
जो शरीर को आत्मा नहीं समझते
वे जीवों से द्रोह नहीं करते
समय चक्र के उलट पलट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
मेरी गाय , से जो मोहित होता
ज्ञानी जन की सेवा से श्रम मिलता
ज्ञानवान की यही है पहचान
अविद्या ,वासना विरक्तवान
देह -गेह आसक्त नहीं
विवेकी पुरुष में भक्ति सही
समय चक्र के उलट पलट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
श्रद्धावान आराधना रत
वर्णाश्रम में पलकर
गर चित्त शुद्ध हो जाता
तत्व ज्ञान वही पाता
निर्गुण गुणों का आश्रय स्थान
आत्म शुद्ध से करो प्रकाश
समय चक्र के उलट पलट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
शरीर ,ज्ञान ,क्रिया – मन
जिस पुरुष को ज्ञात होता
आत्मा से निर्लिप्त रहता
वही मोक्ष पद ,प्राप्त करता
जो आवागमन को भूत हैं कहते
वह आत्मा से संबंध नहीं रखते
समय चक्र के उलट पलट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
जिसके चित्त में समता रहती
ईश्वर का वास वहीं रहता
मन और इंद्रिय जीतकर वह
लोक पर राज वही करता||
– सुखमंगल सिंह

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