रातभर हम ओस पर खींचा किए थे लकीरें,
सुबह को सुरज मुआ दुनिया उड़ा कर ले गया।
हमने ज़मीं पर बैठकर इंचों में नापा आसमां,
जाना तो माना कहां तारे से तारा रह गया।
आंखों से नापा तो ये मंज़िल हुई मरीचिका,
कल की कहीं कलकल हुई और आज मेरा बह गया।
पलकों के आगे यहां चुल्लू भरा और चल दिए,
पलकों के पीछे मेरा सागर उलझ कर रह गया।
हर मील के पत्थर पे बैठा मुस्कुराता आदमी,
देखकर, मुंह फेरकर, वो कवि मुझको कह गया।