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कागज़ और कलम

जब आसपास की खट पट

खामोशी में बदलती है।

जब तेज़ भागती घडी की सुइंया

धीरे धीरे चलती है।।

 

दिनभर दिमाग के रास्तों पर

विचारों का जाम होता है।

मन रूपी मेरी तकती पर नजाने

किस किस का नाम होता है।।

 

जब विचारों का ये जाम

हौले हौले  खुल जाता है।

और सर सर करते पंखे का शोर भी

कानो में घुलता जाता है।

तब अचानक कल्पनाओं का

इंद्रधनुष खिल जाता है।।

 

कागज़ और कलम की बातें

तब सुनने में आती हैं।

कागज़ फड़फड़ाता है

कलम इतराती शर्माती है।।

 

बोला कागज़ ऐ कलम-

जो थी मेरी मजबूरी

उसे तुम मुक्कदर समझ बेठी।

मैं तुम्हे सुलझाने आया था

तुम मुझसे ही उलझ बैठी।।

 

तुझसे मिलने को  मैं

कितनी ही बार उखड़ा हूँ।

साथ तेरे कविता ,कहानी

अकेला केवल एक टुकड़ा हूँ।।

 

रहता हूँ पन्नों के बीच

बस इसी इंतज़ार में।

के आकर मेरे पास तू

मेरा जीवन संवार दे।।

 

जानता हूँ आएगी तू पास मेरे

इसलिए मन में रखता हूँ सबुरी।

तेरे बिन हूँ में अधूरा

मेरे बिन है तू अधूरी।।

 

कभी वक़्त मिल जाय तो

मुझे भी याद कर लेना।

मेरे इस कोरेपन को तू

अपनी श्याही से भर देना।।

 

दर्द सहकार भी देख ले

मै चुप ही रहता हूँ।

तू जो लिख देती है मुझ पर

मै बस वो ही कहता हूँ।।

 

कागज़ के बातें सुनकर

कलम के अश्क छलक आय।

कागज़ ने उन्हें संभाल लिया

ताकि मोती बिखर न जाँय।।

 

कलम के आंसुओं से कागज़ पर

एक बात उभर आई।

तूने बुलाया था मुझको

देख ले तेरे पास चली आई।।

 

इस हलकी फुल्की नोक झोंक की

फिर आपस में चर्चा होती है।

और बंज़र पड़े उन दिलों पर फिरसे

प्रेम की वर्षा होती है।।

 

कलम कागज़ की कहानी को

मै कुछ ऐसे कहता हूँ।

और अगर कागज़ हूँ मै तो हाँ

कलम से दूर रहता हूँ।।

 

विचार कीजियेगा???

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