काल चक्र में घूम रही,
मैं कोना-कोना छान रही,
हीरा पत्थर छाँट रही मैं,
तिनका-तिनका जोड़ रही,
उसमें भी कुछ हेर रही,
संजोऊँ क्या मैं भरमाऊँ,
कण-कण में फँसती जाऊँ,
इस क्षण में. डूबूँ या स्वपनिल,
चमन में मैं उड़ जाऊँ,
चरखा डोर पतंग हुआ मन,
इस क्षण बाँधूू चरखे से डोर,
सरपट दौड़े मन पतंग की ओर,
डोर से पतंग जोड़ने की होड़,
बिन डोर पतंग उड़े उन्मुक्त,
चमन की ओर,चरखे पतंग में,
डोल. रहा मन , डोर निरा,
वर्तमान बना है,भूत-भविष्य में,
दौड़ रहा मन,
बहुत कठिन है,
समय संग मन की दौड़,
काल चक्र तो चलता जाए,
क्या संजोऊँ,क्या मैं पाऊँ,
भूत -भविष्य में गोते खाऊँ,
बस यूँ हीं भ्रम में फँसती जाऊँ,
काल चक्र में घूमती जाऊँ ।।