किताबें दोस्त थी मेरी, दुख सुख की साथी,
अकेलेपन में किसी की कमी ना खलने देने वाली,
हंसती मुस्कुराती।
मुझे जहां भी कोई किताब मिल जाती
मेरे पुस्तकालय में सुशोभित हो जाती।
इंटरनेट ने तो कहीं का ना छोड़ा
लोगों ने किसानों से नाता ही तोड़ा।
सूनी पड़ी रहती पुस्तकालय
एक बटन दबाते ही फोन में सब कुछ आ जाता।
पर किताबें हमसे बहुत कुछ कहती हैं
जो यह फोन नहीं कह पाता।
निमिषा सिंघल