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कोई चांद बुझाना

हम जमाने से हैं तंग तंग हमसे जमाना
अंधेरा ओढ़ती हूं कोई चांद बुझाना।

पैरों के नीचे की जमीं भी छीन ली सबने
लटकी हूं फंदे से भी तो बनता है फसाना।

अठखेलियां, चतुराई , प्रेम मैं जो करूं तो
त्रिया चरित्र उसको भी कहता है जमाना ।

पीपल के तले नैन दीप साझा थे किए
दिल में सुलग रही है कोई आग बुझाना।

इस इश्क की बीमारी में हम जलते तो रहे
बुझ कर भी राख ना हुए कोई राज बताना।

ये मीर दाग जौन ने भी इश्क था किया
शेरों में इनके दर्द ढूंढता है जमाना

हम हंसते हंसते एक दिन खामोश हो गए
अब खामोशी पर सवाल उठाता है जमाना।

हम मौज में रहते हैं अपनी फिर भी ठीक है
अश्कों को भी बवाल बताता है जमाना।

खातून ने जब शौक में शौहर बदल लिया
मासूका को तब नेक बताता है जमाना।

मोमिन ने कुछ सवाल खुदा से जो कर लिए
मुल्हिद उसी को बाद में कहता है जमाना।

कभी इश्क निभाने को वफादार हम हुए
फिर बदचलन हूं मुझको बताता है जमाना।

अगर बाप की पगड़ी के लिए प्रेम त्याग दूं
लड़की थी बेवफा यही लिखता है जमाना।

महफिल में शेर सुन के सब आंसू बहाते हैं
फिर इश्क करने वालों पे हंसता है जमाना।

हैं हीर रांझा, लैला मजनू रोज मर रहे
क्यों इश्क को महफूज नहीं करता जमाना।

जब इंसानियत तड़प तड़प के दम है तोड़ती
सहारे को फिर क्यों नहीं आता है जमाना।

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