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कौन जाने

बारहा अब ये हक़ीक़त कौन जाने,
आँख भी करती बग़ावत कौन जाने।

मैं फ़िदा होता रुख़सार पे बस,
इश्क़ है या है इबादत कौन जाने।

जान देना था लुटा आये सनम पर,
इसके भी होते मुहूरत कौन जाने।

मौत की मेरी मुझे परवाह कब है,
जान मेरी हो सलामत कौन जाने।

गेसुओं की छाँव में होगी बसर फ़िर,
ज़ुल्फ़ उनके दें इजाज़त कौन जाने।

रात को उठ बैठ जाता हूँ अचानक,
नींद में भी अब शरारत कौन जाने।

जिस क़दर दुश्वारियाँ हैं आज कल ये,
छोड़ दे काफ़िर मुहब्बत कौन जाने।

#काफ़िर (11/06/2016)

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