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गुनाह

गुनाह तो कोई ज़रूर बहुत ही बड़ा कर रहा हूँ मैं,
सबकी नज़रों से होकर पल- पल गुज़र रहा हूँ मैं,

रास्ते ठहरे हैं मगर जाने क्यों चलते नज़र आते हैं,
जिस पल से ज़िन्दगी रेल में सफ़र कर रहा हूँ मैं,

खामोश बैठा है कोई कोई चुप होने को तैयार नहीं,
के मालूम है दर्द में हैं दोनों की फिकर कर रहा हूँ मैं,

दुआ और दवा की एक इबारत खत्म कर चुके हैं जो,
खुश हूँ के उनके मरहम पर अभी असर कर रहा हूँ मैं,

लाख कोशिशों में भी जो चराग जल के जल न सका,
हवाओं के बीच उसे बुझाने की मुन्तज़र कर रहा हूँ मैं,

जो टूटी हुई किसी कुर्सी सा कोने में फैंक दिये जाते हैं,
हाँ-हाँ मित्र बेशक उन्हीं बुज़ुर्गों का ज़िकर कर रहा हूँ मैं।।

राही अंजाना
मुन्तज़र – उम्मीद

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