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चंदन तुम सर्प लपेटे रहते हो

चंदन ! तुम सर्प लपेटे रहते हो।
तुम शीतल हो तुम निर्मल हो,
खुशबू तेरे भीतर है।
वैर नहीं है तुम्हें किसी से
हृदय बड़ा पवितर है।।
मलयाचल पर बने तपस्वी
दूर अकेले रहते हो।
चंदन ! तुम सर्प लपेटे रहते हो।।
एक शंकर कैलाश के वासी
सर्पों के मालाधारी हैं।
जहर हलाहल पीकर शंभु
अभयंकर त्रिपुरारी हैं।।
नीलकंठ का नीलापन
तुम भी तो ठक सकते हो।
चंदन ! तुम सर्प लपेटे रहते हो।।
कैलाश शिखर पर जिनका वंदन।
वो तो हैं प्रभु दुष्ट निकन्दन।।
मलय गिरी जब आते हैं।
तपसी रूप हो जाते हैं।।
“विनयचंद “मंगलकारी के
क्यों न संग समेटे रहते?
चंदन !. तुम सर्प लपेटे रहते हो।।

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