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चराग

ये जिस्म है, ये जिस्म ही न पिघल जाये कहीं,
किसी चराग की शरारत से न जल जाये कहीं,

मैं चमकता रहा हूँ उसीकी गर्म रौशनी से यारों,
मुझको मेरा ही ये भरम न निगल जाये कहीं,

जलाकर रख रहा हूँ मैं जिन दीयों को हर दिन,
उन्हीं की करवट से कोई शाम न ढल जाये कहीं,

आदत है मेरी अँधेरे में भी यूँ चलना मुमकिन है,
डर है के वो घर से मेरे पीछे न निकल जाये कहीं,

रास्ता मुश्किल है बर्फ की एक चादर फैली यहां,
अब देखना ये है के ये राही न फिसल जाये कहीं।।

राही अंजाना

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