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चांद की ब्यथा

निज आंगन में बैठा- बैठा
देख रहा था चन्द्र वदन को।
धवल सुशीतल चन्द्रकिरण ने
नहलाया बसुधा के तन को।।

सुधा सुधाकर बरसाए पर
निज मस्तक न धो पाए।
दाग चढ़ा कैसा माथे पर
अंखिया मीच न सो पाए।।

मैं भी जागूँ तुम भी
क्योंकर रात सुहानी में।
तुझे देख मैं जाग रहा
और तुम किसके कुर्बानी में।।

कहा चांद सुन प्रेमी मेरे
एक चकोर के कारण मैं
रच रजनी रजनीचर बन
आंगन खूब सजाया था।
पर्वत शर सरिता बसुधा को
कुसुमित सेज बनाया था।।

एक -एक कर बीत गए
और आई रात अमावस की।
मेरा तन मन डूब गया
बिन पानी बिन पावस की।।

उसी चकोर के का कालापन
मेरे मन मंदिर में छाया।
हर रात जागता रोता हूँ
पर इसको धो नहीं पाया।।

विनयचंद तू आशिक बन
पर इतना रखना याद सदा।
प्रेम पुंज को जग ने
माना जीवन बाद सदा।।

विनय शास्त्री

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