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चौदहवीं का चाँद

मेरे महबूब के हुस्न की जो बात है।
चौदहवीं के चांद तेरी क्या बिसात है।।

चांद भी देख गश खाएगा,
मेरे महबूब को देख शर्माएगा।
मेरे महबूब से हंसीन ये रात है।
चौदहवीं के चांद तेरी क्या बिसात है।।

ले अंगड़ाई, दिन निकल आए,
खोल दे गेसूं, शाम ढल जाए।
झटक दें जुल्फें तो होती बरसात है।
चौदहवीं के चांद तेरी क्या बिसात है।।

चांद तू क्यों उखड़ा उखड़ा है,
मेरे महबूब की चूड़ी का टुकड़ा है।
खनकती चूड़ियां तो मचलते जज़्बात हैं।
चौदहवीं के चांद तेरी क्या बिसात है।।

देवेश साखरे ‘देव’

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