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छल

छल और प्यार में से क्या चुनूँ
जो बीत गया उसे साथ ले कर क्यों चलूँ

पतंग जो कट गई डोर से
वो खुद ही कब तक उड़ पायेगी
हालात के थपेडों से बचाने को उसको
फिर नयी डोर का सहारा क्यों न दूं

जो शाख कभी फूलों से महकी रहती थी
वो पतझड़ में वीरान हो चली है
उसे सावन में फिर नयी कोपल आने का
इंतजार क्यों न दूं

छल चाहे जैसा भी हो , उसे ढोना भारी हो जाता है
आधा सफ़र तो कट गया , पर रास्ता अभी लम्बा है
उस भार को यहीं उतार
बाकी का सफ़र क्यों न आसां करूँ

कहते हैं देने वाला अपने हैसियत के
हिसाब से देता है
उस से उसकी हैसियत के बाहर
की उम्मीद क्यों करूँ

छोटी सी ज़िन्दगी में जो मिला, क्या कम है
खुद से थोडा प्यार जताकर
फिर से ज़िन्दगी के दामन से
क्यों न बंधू

छल और प्यार में से क्या चुनूँ
जो बीत गया उसे साथ ले कर क्यों चलूँ

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

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