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जब रुख़ एक मासूम शिशु था

एक दिन धरा की गोद में डाला
मैंने अंकुरित बीज
जैसे ईश्वर बांधे खग को
मातृत्व ताबीज
उस बीज को जल दे देती
हो जान कभी अनजान
फिर उस नन्हे शिशु में देखो
दो दिन में पड़ गई जान
फिर धरा की धूल आंखों से हटाए
खुल गई नींद थी गहरी
मेरे मुख को देखकर पूछे
क्या तुम ही हो मेरी पैहरी
शिशु के उस मासूम प्रश्न ने
ह्रदय विजय किया मेरा
शिशु के सिर पर हाथ फेर
हां मैंने दिया था पहरा
सब्र की में बीड़ी में मन बांधा
बड़ा रखा था संयम
रोज सवेरे जल दू वट को
ना तोड़े थी नियम
अचला के आंचल पर बिछी थी
उस धूल की सूखी प्रत
उस आंचल की गोद खड़ा
अब दृढ़ता से एक दरख्त

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