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जर्जर

हमें प्यार की बीमारी हो गई,
याद में उसके शरीर जर्जर हो गई|
अब हमें चार कंधों की जरूरत नहीं,
शमशान एक व्यक्ति ले जाए ऐसी मेरी शरीर हो गई|

वर्ष पहले नींद छूट गई थी,
कुछ समय बाद भोजन छूट गया|
बस नजरें बची थी उसे देखने को,
जब मैं मरा वह आशा टुट गया|

तब जमाने के लोगों को पता चला,
मरा क्यों जब मेरे जेब से खत मिला|
वह आखिरी खत था उसका,
खत संभालने या प्यार करने का सजा मिला|

मत प्यार करो ऐसा
खुद को मिटा दो कीट फतिंगो के जैसा,
वह अपना कहीं घर बस आएगी
भूलकर भी तेरे कब्र पर ना आएगी|

ना जमाना तुम्हें शहीद कहेगा,
ना तुम्हारे कब्र को प्रणाम करेगा|
संभल जाओ जमाने के प्रेमियों,
वरना जमाना तुम्हें नासमझ कहेगा|

——-✍ ऋषि कुमार “प्रभाकर”———

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