कर गुज़रता कुछ तो, ज़िन्दगी रंगीन हो जाता।
जो किया ही नहीं, वो भी ज़ुर्म संगीन हो जाता।
मैं क्या हूँ, ये मैं जानता हूँ, मेरा ख़ुदा जानता है,
आग पर चल जाता तो, क्या यकीन हो जाता।
कुसूर बस इतना था, मैंने भला चाहा उसका,
काश ज़माने की तरह, मैं भी ज़हीन हो जाता।
तोहमतें मुझ पर सभी ने, लाख लगाई लेकिन,
ज़माने की सुनता गर मैं, तो गमगीन हो जाता।
नशे में जहाँ है, मैं भी गुज़रा हूँ, उन गलियों से,
सम्भल गया वरना, ‘देव’ भी शौकीन हो जाता।
देवेश साखरे ‘देव’
ज़हीन- intelligent,