नीर बन जो बह रही धरा पर,
थी वह पर्वत की शिरमौर्य कभी,
आज तपन बाधाएँ निज पग में,
सह रही जो,था उसके जीवन में,
भी शीतलता का अंम्बार कभी,
पतझड़ में झड़ते पत्ते जो,
उनपे भी था मधुमास कभी,
सपने में धूमिल हुए जो पल,
उनमें भी था प्रकाश कभी,
जीवन गलियारे में,आशाओं के ,
पखवारे में कौन किस पर भार बना,
कौन निज जीवन का सुख त्याग कर,
भगवान बना,अँधियारे, उजियारे में,
पथभ्रमित कितने दीवार बने,
नयनो से ओझल होते,
कितने सपने परिहार बने,
रूत बदले, हम न बदले,
मौन उठे पुकार तुझे,
जीवन पथ पर चलते-चलते,
हम एक-दूजे के हार बने ।।