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“झूठी शान से बच जाती”

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गोद में लेकर मुझे
हे पिता! तुमने कहा था
मांग ले गुडिया तुझे
जो खिलौना मांगना है
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हाथ जिस पर रख दिया
तुम्हे कब ना पसंद था
उसका क्या मोल है
उठा कभी यह प्रश्न था?
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जिन सपनो के संग खेली
भेदभाव था नहीं उनमे कभी
जीवनपथ में स्वयं चुनाव हो
एसा सन्देश था जिनमे कभी
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माँ भी मुझे प्यार करती
पर कभी वह डांट लेती
किन्तु पिता तुमसे मिला
अनवरत अक्षीण प्रेम प्रकाश
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संवेदना माँ से अधिक
मैंने तुम्हारी पाई थी
छत्र छाया में तुम्हारी
मैं निडर जीती आई थी
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वक्त जैसे स्वतंत्र पंछी
की तरह उड़ता गया
आँगन में तुम्हारे एक चाँद
पूर्णिमा को बढता गया
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फिर एक दिन क्यों
सब कुछ बदल गया
मेरा किसी से प्रेम तुमको
क्यों और कैसे अखर गया
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कैसे समाज की रूडीवादिता
तुम पर हावी हो गई..
क्यों तुम्हारी गुडिया से तुम्हे
घनघोर नफरत हो गई?
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क्या प्रेम करना था मेरा गुनाह
या स्वयं चुनाव से हुए तुम शर्मिंदा?
क्यों खांप नियमो के मोहताज हुए तुम
कैसे तुम मेरे गले पर चला पाए रंधा?
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मुझे ससुराल भेज दोगे
सोच कर रोने वाले, हे पिता!
अपनी शान की खातिर
कैसे मुझे तुम मार पाए?
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मुझे अपना भाग्य
बताने वाले हे पिता!
मेरे भाग्य में कैसे
तुम मौत लिख पाए?
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तुमने ही बतलाया था
प्रेम करना ही धर्म है
तुमने ही सिखलाया था
नफरत सबसे बड़ा कुकर्म है
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मनुजो के काम न आये
धर्म नहीं आडम्बर है
मनुज मनुज को प्रेम करे
यही धर्म का सन्दर्भ है
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तुमने मेरा खून नहीं
अपना खून किया है
मानवता शर्मशार हुई है
तुमने बड़ा अधर्म किया है
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हे पिता! मैं जा रही हूँ
इन अधूरे सवालों साथ
फिर कभी न लौटकर
आने के वादे के साथ.
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मनुष्य बनने से अच्छा
मैं पशु ही बन जाती
कोई पिता नहीं देता
किसी खांप को मेरी आहुति
मैं झूठी शान से बच जाती
मैं झूठी शान से बच जाती!

…………………… © पुनीत शर्मा

जनपद अमरोहा, उत्तर प्रदेश

+91 7895300487, +91 7055274298

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