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ढहती दीवारें

तब, जबकि कल ;
बहुत छोटी थी ‘मैं’
कहा करती थी ‘माँ’
——- ऐसा मत करो !
——- वैसा मत करो !!
: वरना लोग क्या कहेंगे ?

शनै:–शनै: —– ‘मैं’ ; ‘ये लोग’ और ‘इनके’ ‘कहने का डर’
यौवन की दहलीज़ तक, साथ—साथ चले आए ……………..
“घर से निकलने” और “सुरक्षित लौट आने तक”
पता नहीं ‘कौन लोग’ , क्या – क्या कह जाते ?

माँ ! एक आशंका से भरी रहती …………….
सीली लकड़ी—सी सुलगती ………. धुंधयाती ॰

‘लोग क्या कहेंगे !”
किसी निर्लज़्ज सवाल की तरह
टांक दिया गया : मेरे समूचे वजूद पर
खिलने को आतुर , एक बेताब पीढ़ी पर
—– माँ , सुनती रही ……
—– लोग , कहते रहे ……
—– मैं , तरसती रही …….

वक्त बदला और दृश्य भी
लेकिन, वही रहीं परिस्थितियाँ
पति की जिद और
ससुराल की मर्यादाओं में बिंधी
मैं, सजी—संवरी ……. सहमी—सहमी
: ‘लोग’ और ‘उनके कहने का डर’ आत्मसात करती चली गई ॰

मगर, सुन मेरी बच्ची !
पहली बार कुछ कहा है ; तूने
: लोगों के कहने से पहले
पहली बार उछाला है : शाश्वत सवाल
—– “कि कौन हैं ‘वे’ लोग” ?
—– “क्या कहते रहते हैं, आखिर” ??

—- ‘आखिर क्यूँ !
किसी के कहने—सुनने पर
मैं , अपने जीवन का आधार बुनूँ’ ?

— “कब तक ? आखिर कब तक, माँ !”
— “मैं, गूँगी बनी रहूँ ??”
“मैंने नहीं कहा कभी कुछ !
क्या इसीलिए सबकी सुनूँ !!”

सच कहा तूने, मेरी बच्ची !
—- “लोगों का कहना केवल मन का भय है” —-
न, ‘वे’ लोग हैं कहीं और न कहते हैं ‘कुछ’ कभी॰

सुन,———–
तू !…………….
अपने तरीके से जी …….
मेरी भी दुआ है, यही ……

जिस आग में “मैं”
ता —- उम्र पिघली ………
तू, उस ताप से महफ़ूज रह कर
: अपने जीने की राह खुद तय कर

“ हम देखेंगे कि ; ………….
लोग, आखिर क्या कहेंगे ? “॰
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