इश्क़ में हैं गुज़रे हम तेरे शहर से तनहा,
महब्बत के उजड़े हुए घर से तनहा!
हम वो हैं जो जीये जिंदगी भर से तनहा,
और महशर में भी जायेंगे दहर से तनहा!
तख़्लीक़े-शेर क्या बताऊ कितना गराँ हैं,
होना पडे हर महफ़िल-ओ-दर से तनहा!!
तुफानो-बर्क़ो-खारो-मौज़ो से निकलकर,
हम निकले गुलशनो-दश्तो-बहर से तनहा!
हम हैं वही जिसे कहता हैं ज़माना शायर,
दुनिया में है मक़बूल हम नामाबर से तनहा’!
तारिक़ अज़ीम ‘तनहा’