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दर्द।

दर्द।

टूटकर सपने नहीं कम हो सके
पास रहकर भी न उनमें खो सके,
अश्क से दामन मेरा है तरबतर
फूटकर हम आजतक न रो सके।

दूर भी हैं वो हमारे पास भी
मौत भी व जिन्दगी की आस भी,
ठोकरें जिनसे मिलीं इस राह पर
उन पत्थरों की आजतक तलाश भी।

दर्द से रिश्ता बहुत मेरा पुराना
धूप में तपता हुआ यह आशियाना,
खाक न हो जाए दिल का ये चमन
है पड़ा ही आँख को दरिया बनाना।

रात क्या, दिन भी अँधेरों में घिरा
आ सवेरा द्वार से मेरे फिरा,
विजलियाँ चमकीं दिखाने रास्ता
वज्र सीने पर कहर बन के गिरा।

टूटकर, टुकड़े बिखरकर रह गये
वक्त की रफ्तार में कुछ बह गये,
ढूँढता हूँ जब कभी अपना वजूद
तू कहाँ अब है अनेकों कह गये।

अनिल मिश्र प्रहरी।

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