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दाँस्ता : एक दर्द

सामने खड़ी  थी  वो  चंचल  हसीना ,
दीवाना था जिसका मैं पागल कमीना,
सब कह रहे थे तुझे देखती है ,
मुझे भी लगा वो मुझे देखती है ,

मैं इस  ओर  था  वो उस ओर थी,
बीच में खिंच रही प्यार की डोर थी ,
समाँ खामोश था वक्त मदहोश था ,
वो भी मशहूर थी मैं भी मजबूर था ,

जैसे  लफ्जों को  कोई  जुबाँ से खी़च रहा था ,
सर्द हवाओं में भी बदन पसीने से भीग रहा था,
बस  यूँ  ही कट रहा  वक्त  का  वो दौर  था ,      कुछ दिनों तक यूँ ही चला प्यार का सिलसिला ,

बात याद  है उस दिन  की  मुझे ,
रक्त रूक सा गया पैर जम से गये ,
मुस्कुरा  के  जो उसने  इशारा  किया ,
मैं अकिंचन ही उस ओर था बढ़ चला,

बीच में आया कोई जिससे लिपट वो गई,
दिल  पर  मेरे  बिजली  सी  गिर  गई,
अपनी प्रेम कहानी यूँ ही पड़ी रह गई ,
आँखों के मुहाने वो यूँ ही खड़ी रह गई,

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