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दुनिया की रस्मों

दुनिया की रस्मों में इन्सां कहाँ मगर गया
वो शहर की रौनक में कौन भर जहर गया

अब भी बैठे ही उन लम्हों की चादर ओढ़कर
वो भी एक दौर था वक़्त के साथ गुजर गया

कल भी उस बात को छूं गया एक नया झोका
वो तेरी बात थी वो इस बात से मुकर गया

जो बनाए थे उसूल हमने बेहतरी के जानिब
तोड़ कर सब वो जाने क्यों बिखर गया

जाने कब आ जाये फिर वही मौसम पुराने
बस यही सोचते वो न जाने फिर किधर गया

राजेश’अरमान’

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