धीरे-धीरे माँ मै बदलने
लगा हूँ।
इस भीड़ भरी दुनिया में
अपना -पराया पहचाने
लगा हूँ ।
लोगों के स्वार्थ भरे रिश्ते
से खुद को अलग सहेजने
लगा हूँ।
मै अब अपने जीवन का
लक्ष्य समझने लगा हूँ।
लोगो के दिखावटी प्यार
का अब मतलब समझने
लगा हूँ।
धीरे-धीरे माँ मै बदलने
लगा हूँ।
नींद पड़ी इस जमीन के
लोगों के ज़मीर भी
अब सोने लगे है।
धीरे -धीरे ………………
कवि:- अविनाश कुमार