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नजर नहीं आये

शहर छोड़ गये हो सोचा मैंने, जब से तुम नजर नही आये…

अजीब हो तुम भी शहर में होकर भी, तुम हमारे शहर नही आये…

जो तुम न दिखते हो पास तो, अल्फाजों की निंदा कर देता हूँ मैं…

कागजों और अल्फाजों को प्रताड़ित करके, इन्हें  शर्मिंदा कर देता हूँ मैं…

जो तुम दिख जाते हो पास तो, नयी कोशिश चुनिंदा कर लेता हूं मैं…

दोनों की सुलह करवा कर, नए अल्फाज़ जिंदा कर लेता हूँ मैं…

गीले कागज हुए थे आब-ए-चश्म से मेरे, तुम्हें क्यूं ये नजर नही आये…

गलियों की गली में जिस गली से गुजरे, उस गली में तुम कभी नजर नहीं आये…

~कविश कुमार

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