पतंगे को दीपक की आहोशी में जाकर अच्छा लगा,
ज़िन्दगी को मौत की मदहोशी में आकर अच्छा लगा,
बन्द रही थी सर्द रातों में कहीं वीराने में जो मोहब्बत,
आज खुलेआम उसे गर्मजोशी में आकर अच्छा लगा,
टोकते रहे सभी मेरी खुली आवाज़ को लेकर अक्सर,
और मुझ अंधे को रौशन खामोशी में आकर अच्छा लगा।।
राही अंजाना