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परोपकारी

पत्थर का पर्वत होकर भी
आखिर पानी सबको देता है।
बिना नाक और मूँह के बृक्ष
सबको सुरभित वायु देता है।।
बिन ईंधन के जलकर सूरज
नित्यहि ताप जगत को देता है।
‘विनयचंद ‘परोपकारी बनकर
आखिर क्यों न कुछ तुम देता है।।

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