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पहचान

शरद की बारिस में,
शुभ्र प्रभा भीग रही है,
एकांत से आँगन में ,
वो खड़ी सोच रही है,
वह आभास कहाँ?
जो मिथक मिटाये,
खाली दालान पड़ा,
कौन हक् जाताये?
मिट्टी की ये महक
अब सोंधी नही रही
चिरैया की ये चहक
अब मीठी नही लगी
उपले पर उगी घास
गाय भी बूढ़ी हो गई
खत्म है भूसा पुआल
बंजर भूमि नही रही,
छप्पर और तिरपाल
खपरैल भी उतर गए
पगडंडी और सिवान
सड़को में बदल गए
पहले आती थी ,जब
गाँव मुस्कुराता मिला
जैसे खुशहाल थे सब
हर एक का मौसम था
परिर्वतन ,मानुष्य का
विकास – सुविधाएँ हैं
झंझट नही झेल रहा
विवर्तन भविष्य का है
फिर भी कहीं दिलों में
अब भी बसता है गाँव,
पीढ़ियों की सुरक्षा में,
छोड़ आये थे हम गाँव
रोजगार की तलाश में
जिंदगी जीना भूल गए
रोटी,रुपया,मकान में
पहचान कहीं खो गए।।
©®
हेमा श्रीवास्तव हेमाश्री प्रयाग।

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