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पिता जी को विदाई

विदा देने में रोता तो कैसे
उनके जाने में रोता तो कैसे
यात्रा का सफर का है जीवन
इन पड़ावों में रोता तो कैसे।
वो चले छोड़ जीवन की धारा
थम गई उनकी धड़कन सदा को
देखता रह गया मेरा अन्तस्
अन्त के वक्त रोता तो कैसे।
जिम्मेदारी अचानक से आकर
मुझसे कहने लगी थी न रो तू
दे दे अंतिम विदाई पिता को
इस समय अपना आपा न खो तू।
मान्यता कह रही थी खड़े हो
आत्मा जो चली स्वर्ग पथ पर
आंसुओं से उसे कष्ट होगा
कष्ट देने को रोता तो कैसे।
इसलिए सब तरफ से संभलकर
उनको दे दी थी अंतिम विदाई
स्वजन भाई बांधव पड़ोसी और
और मित्रों ने ढाढस बंधाया।
बारह दिन तक सभी ने पहुंच कर
शोक मन का भुला सा दिया था
अब चले अपनी मंजिल को सारे
आज उड़भाड़ सा लग रहा है।
आज रोने की चाहत है थोड़ी
पर नहीं रो सकेगा ये अन्तस्
ख्याल सबका रखूँ जिम्मेदारी
जिम्मेदारी में रोऊँ तो कैसे।
—- डॉ0 सतीश पाण्डेय

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