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“प्रारब्ध की ऊँघ”

अदृश्य,
अकल्पनीय,
प्रारब्ध की ऊँघ,
उच्छ्वास प्रकृति का
है मां का प्यार
प्रभाकर की रोशनी
से भी तीव्र है
ममता की लौ
जिसमें पुलकित होते हैं
नन्हें सुमन
और देते हैं जहान को
सुन्दर सुगंध
प्रदीप्त हो जाती हैं
जीवन की लडियाँ
भर जाता है
जीवन का हर कोना-कोना।।

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