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प्रेम का लबलब घड़ा…

रुक मुसाफिर ! रुक जरा !
मैं हूँ प्रेम का लबलब घड़ा.
कीर्ति तेरे परिश्रम की
कम नहीं फैली हुई है…
राह में तेरे मुसाफिर
देख ये प्रज्ञा’ खड़ी है
सुन जरा ओ पथिक प्यारे !
देख टूटा जाये ये लबलब घड़ा
भर ले अंजुल मेरे नीर से
वरना छलक जायेगा यह घड़ा…
सुन जरा ओ पथिक प्यारे !
पी ले तू मुझको जरा
प्यास तेरी मिटेगी और
दर्द कम होगा मेरा…

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