सिकुड़कर फटि हुई कपड़ो मे
गठरीनुमा होता जारहा है वह
मायुस सा
आँखो मे प्रचुर गम्भीरता लिए हुवे
जैसे मजबूर मुक पशु हो
पडा है फुटपाथ मे
इसे देख अपने बदन के सुटको
उतार फेकनेको जी चाहता है
खामोस आँखो से वह
बहुत कुछ कहरहा है, इस जमाने को
टुकुर टुकुर हसरत भरी नजरो से
देखता है
कोइ राहगीर
चबाये जो सेव को
गटर मे फेके जुठा पत्तल
जो चाटा उसने
डैनिग टेबुल मे सजे पकवानोको देख
उल्टी करनेको जी चाहता है
क्यों एक इन्सा इन्सानको
करती है इतनी जिल्लत
कौनआया है कुछ लेकर यहा
और लेकर क्या हम जाएंगे
किसने बनाई इस भेद भावको
कौन आकर सम्हालेगा अब
फस गया मै इस किस दुभिदा मे
कैसे सम्हालु मेरे मन और मस्तिष्कको
अब तो सर को दिवार मे फोडनेको जी चाहता है
हरि पौडेल